नारायण मूर्ति के अनुसार भारत में 5 दिन का कार्य सप्ताह: एक गलत दिशा

नारायण मूर्ति के अनुसार भारत में 5 दिन का कार्य सप्ताह: एक गलत दिशा

नव॰, 16 2024

भारत में 5-दिवसीय कार्य सप्ताह: नारायण मूर्ति का दृष्टिकोण

इन्फोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने हाल ही में एक चर्चित बयान देकर कार्य संस्कृति पर एक व्यापक बहस छेड़ दी है। मूर्ति ने अपनी निराशा प्रकट करते हुए कहा कि 1986 में भारत द्वारा 6-दिन के कार्य सप्ताह को घटाकर 5-दिन का कार्य सप्ताह करना एक गलत दिशा है। यह विचार उन्होंने CNBC ग्लोबल लीडरशिप समिट में व्यक्त किया, जिसमें मूर्ति ने जोर देकर कहा कि देश की तरक्की के लिए कठिन परिश्रम अत्यंत आवश्यक है।

मूर्ति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के परिचालन घंटे, जो कि 100 घंटे प्रति सप्ताह बताए जाते हैं, का उल्लेख किया और कहा कि जब प्रधानमंत्री इतनी मेहनत कर रहे हैं तो हमें भी उनका अनुसरण करना चाहिए। उनके अनुसार, यह भारत के विकास के लिए एक संदेश है कि हम भी उतजी जितनी मेहनत करें। यह दृष्टिकोण दिखाता है कि मूर्ति की सोच में कड़ी मेहनत और कार्य के प्रति दृढ़ संकल्प का विशेष स्थान है।

मूर्ति की कार्य संस्कृति और व्यक्तिगत उदाहरण

नारायण मूर्ति ने अपने व्यक्तिगत कार्य अनुभवों का भी उदाहरण दिया, जिसमें उन्होंने एक लंबे और कठिन कार्य सप्ताह का समर्थन किया। उनका खुद का कार्य दिनचर्या एक प्रेरणा का स्रोत है, जिसमें वे 14 घंटे प्रतिदिन और 6.5 दिन प्रति सप्ताह काम करते थे। सुबह 6:30 बजे ऑफिस पहुंचना और रात लगभग 8:40 बजे वापस लौटना उनका नियमित कार्य समय था। यह उनकी व्यक्तिगत मेहनत का सजीव उदाहरण है।

मूर्ति ने यह भी स्पष्ट किया कि उनका यह दृष्टिकोण जीवन भर उनके साथ रहेगा। इस संबंध में उन्होंने भारत के युवाओं से भी अपील की, विशेषतः मिलेनियल्स से कि उन्हें एक सप्ताह में 70 घंटे काम करने का लक्ष्य बनाना चाहिए। उन्होंने यह बात ठहराई कि जर्मनी और जापान जैसे देशों ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद अपनी अर्थव्यवस्था को कठिन परिश्रम और समर्पण के माध्यम से मजबूत किया।

नया मुद्दा: कार्य बलिदान बनाम आनंद

मूर्ति के इस दृष्टिकोण पर समाज के विभिन्न हिस्सों में विश्लेषण हो रहा है। कुछ विशेषज्ञ मूर्ति की बात का समर्थन करते हैं, जबकि अन्य इसे काम के लिए अत्यधिक बलिदान की मांग बताते हैं। वर्तमान समय में कार्य-जीवन संतुलन एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है, जहां व्यक्तिगत जीवन और कार्य के बीच सामजस्य बिठाने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। आलोचकों का कहना है कि इस तरह की सोच के फलस्वरूप जहां एक ओर व्यक्तियों पर अत्यधिक कार्य दबाव पड़ सकता है, वहीं दूसरी ओर दीर्घ अवधि के लिए यह अनैतिक और अस्थिर भी हो सकता है।

हालांकि, मूर्ति अपने विचारों पर कायम हैं और मानते हैं कि भारत की आर्थिक और सामाजिक दशा में सुधार के लिए कार्य संस्कृति का विकास होना आवश्यक है। उनका दृढ़ विश्वास है कि देश का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक राष्ट्र के नागरिक असाधारण मेहनत नहीं करेंगे।

भविष्य के लिए मार्गदर्शन: ठोस कार्य नीति का विकास

भविष्य के लिए मार्गदर्शन: ठोस कार्य नीति का विकास

मूर्ति के विचार व्यक्त करते हैं कि आज भारत को एक ठोस कार्य नीति की जरूरत है जो विकास और व्यक्तिगत संतुलन दोनों को साध सके। यह स्पष्ट है कि कार्य संस्कृति में सुधार केवल कार्य घंटों की संख्या बढ़ाने से संभव नहीं होगा, बल्कि इसके लिए एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी। ऐसे में, नीतियों का विकास करना आवश्यक है जो कर्मचारियों की उत्पादकता को वृद्धि देने के साथ-साथ उन्हें मानसिक और शारीरिक संतुलन बनाने में सहायता कर सके।

अंततः मूर्ति का संदेश है कि आज के दौर में, जब वैश्विक प्रतिस्पर्धा उच्चतम स्तर पर है, हमें विदेशी देशों से प्रतिस्पर्धा करने के लिए मेहनत की संस्कृति को अपनाना होगा। यह केवल एक दिशादर्शक नहीं बल्कि एक नया आह्वान है, जिससे देश की उन्नति की नई ईबनाई जा सके। खोजेगांति यह है कि कैसे यह दृष्टिकोण हमारे कार्य संस्कृति में परिवर्तन ला सकेगा और देश की विकास यात्रा में एक अहम भूमिका निभाएगा।

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